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पंचतन्त्र की कहानियाँ

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प्रत्येक देश के साहित्य में उस देश की लोक कथाओं का स्थान बहुत महत्वपूर्ण होता है। भारत का साहित्य जितना पुराना है, उतनी ही पुरानी इसकी लोक कथाएँ हैं। इन कथाओं में भी श्री विष्णुशर्मा द्वारा प्रणीत लोक-कथाओं का स्थान सबसे ऊँचा है। इन कथाओं का पाँच भागों में संकलन किया गया है। इन पाँचों भागों के संग्रह का नाम ही ‘पञ्चतन्त्र’ है।

पञ्चतन्त्र की कथाएँ निरुद्देश्य कथाएँ नहीं हैं। उनमें भारतीय नीति शास्त्र का निचोड़ है। प्रत्येक कथा नीति के किसी भाग का अवश्य प्रति पादन करती है। प्रत्येक कथा का निश्चित् उद्देश्य है।

 

ये कथाएँ संसार भर में प्रसिद्ध हो चुकी हैं। विश्व की बीस भाषाओं में इनके अनुवाद हो चुके हैं। सबसे पहले इनका अनुवाद छठी शताब्दी में हुआ था तब से अब तक यूरोप की हर भाषा में इनका अनुवाद हुआ है। अभी-अभी संसार की सबसे अधिक लोकप्रिय प्रकाशन संस्था “Pocket- Book Inc., ” ने भी पंचतन्त्र के अंग्रेज़ी अनुवाद का सस्ता संस्करण प्रकाशित किया है। इस अनुवाद की लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं।

 

पञ्चतन्त्र में भारत के सब नीति-शास्त्रों – मनु, शुक्र और चाणक्य के नीतिवाक्यों का सार कथारूप में दिया गया है। मन्द से मन्द बुद्धि वाला भी इन कथाओं से गहन से गहन नीति की शिक्षा ले सकता है।

 

कहानी 1: आमुख पंचतंत्र की 101 कहानियां pdf download

 

दक्षिण देश के एक प्रान्त में महिलारोप्य नाम का नगर था। वहाँ एक महादानी, प्रतापी राजा अमरशक्ति रहता था। उसके अनन्त धन था, रत्नों की अपार राशि थी किन्तु उसके पुत्र बिल्कुल जड़बुद्धि थे। तीनों पुत्रों—बहुशक्ति, उग्रशक्ति, अनन्तशक्ति—के होते हुए भी वह सुखी न था। तीनों अविनीत, उच्छृङ्खल और मूर्ख थे।

 

राजा ने अपने मन्त्रियों को बुलाकर पुत्रों को शिक्षा के सम्बन्ध में अपनी चिन्ता प्रकट की। राजा के राज्य में उस समय ५०० वृत्ति-भोगी शिक्षक थे। उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जो राजपुत्रों को उचित शिक्षा दे सकता। अन्त में राजा की चिन्ता को दूर करने के लिए सुमति नाम के मन्त्री ने सकलशास्त्र-पारंगत आचार्य विष्णुशर्मा को बुलाकर राजपुत्रों का शिक्षक नियुक्त करने की सलाह दी।

 

राजा ने विष्णुशर्मा को बुलाकर कहा कि यदि आप इन पुत्रों को शीघ्र ही राजनीतिज्ञ बनादेंगे तो मैं आपको १०० गाँव इनाम में दूँगा। विष्णुशर्मा ने हँसकर उत्तर दिया—”महाराज! मैं अपनी विद्या को बेचता नहीं हूँ। इनाम की मुझे इच्छा नहीं है। आपने आदर से बुलाकर आदेश दिया है इसलिये ६ महीने में ही मैं आपके पुत्रों को राजनीतिज्ञ बना दूँगा। यदि मैं इसमें सफल न हुआ तो अपना नाम बदल डालूँगा।”

 

आचार्य का आश्वासन पाकर राजा ने अपने पुत्रों का शिक्षण भार उन पर डाल दिया और निश्चिन्त हो गया। विष्णुशर्मा ने उनकी शिक्षा के लिये अनेक कथाएँ बनाईं। उन कथाओं द्वारा ही उन्हें राजनीति और व्यवहार-नीति की शिक्षा दी। उन कथाओं के संग्रह का नाम ही ‘पञ्चतन्त्र’ है। पाँच प्रकरणों में उनका विभाग होने से उसे ‘पञ्चतन्त्र’ नाम दिया गया।

 

राजपुत्र इन कथाओं को सुनकर ६ महीने में ही पूरे राजनीतिज्ञ बन गए। उन पाँच प्रकरणों के नाम हैं:

१—मित्रभेद,

२—मित्रसम्प्राप्ति,

३—काकोलूकीयम्,

४—लब्धप्रणाशम् और

५—अपरीक्षितकारकम्।

 

कुसंगति का फल

एक राजा के शयन-गृह में शैया पर बिछी सफेद चादरों के बीच एक मन्दविसर्पिणी सफेद जूँ रहती थी। एक दिन इधर-उधर घूमता हुआ एक खटमल भी वहाँ आ गया। उस खटमल का नाम था ‘अग्निमुख। अग्निमुख को देखकर दुःखी जूँ ने कहा-“हे अग्निमुख ! तू यहाँ अनुचित स्थान पर आ गया है इससे पूर्व कि कोई आकर तुझे देखे, यहाँ से भाग जा।” खटमल बोला-“भगवती! घर आए दुष्ट व्यक्ति का भी इतना अनादर नहीं किया जाता, जितना तू मेरा कर रही है। उससे भी कुशल-क्षेम पूछा जाता है। घर बनाकर बैठने वालों का यही धर्म है। मैंने आज तक अनेक प्रकार का कटु-तिक-कषाय अम्ल रस का खून पिया है; केवल मीठा खून नहीं पिया।

आज इस राजा के मीठे खून का स्वाद लेना चाहता हूँ। तू तो रोज ही मीठा खून पीती है। एक दिन मुझे भी उसका स्वाद लेने दे।” जूँ बोली-“अग्निमुख ! मैं राजा के सो जाने के बाद उस का खून पीती हूँ। तू बड़ा चंचल है, कहीं मुझ से पहले ही तूने खून पीना शुरू कर दिया तो दोनों मारे जाएँगे। हाँ, मेरे पीछे रक्तपान करने की प्रतिज्ञा करे तो एक रात भले ही ठहर जा।” खटमल बोला-“भगवती ! मुझे स्वीकार है।

 

मैं तब तक रक्त नहीं पीऊँगा जब तक तू नहीं पी लेगी। वचन भंग करूँ तो मुझे देव-गुरु का शाप लगे।”

इतने में राजा ने चादर ओढ़ ली। दीपक बुझा दिया। खटमल बड़ा चंचल था। उसकी जीभ से पानी निकल रहा था। मीठे खून के लालच से उसने जूँ के रक्तपान से पहले ही राजा को काट लिया। जिसका जो स्वभाव हो, वह उपदेशों से नहीं छूटता।

अग्नि अपनी जलन और पानी अपनी शीतलता के स्वभाव को कहाँ छोड़ सकती है? मर्त्य जीव भी अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते। अग्निमुख के पैने दाँतों ने राजा को तड़पा कर उठा दिया। पलंग से नीचे कूद कर राजा ने सन्तरी से कहा- “देखो, इस शैया में खटमल या जूँ अवश्य है। इन्हीं में से किसी ने मुझे काटा है।”

सन्तरियों ने दीपक जला कर चादर की तहें देखनी शुरू कर दी। इस बीच खटमल जल्दी से भागकर पलंग के पायों के जोड़ में जा छिपा। मन्दविसर्पिणी जूँ चादर की तह में ही छिपी थी। सन्तरियों ने उसे देखकर पकड़ लिया और मसल डाला।”

पंचतंत्र की कहानियाँ PDF in Sanskrit

शिक्षा – हमें किसी भी अनजान व्यक्ति की बातों में नहीं आना चाहिए बल्कि हमेशा उनसे सावधान ही रहना चाहिए।

तीन मछलियों की पंचतंत्र की कहानी

एक नदी के किनारे उसी नदी से जुड़ा एक बड़ा जलाशय था। जलाशय में पानी गहरा होता है, इसलिए उसमें काई तथा मछलियों का प्रिय भोजन जलीय सूक्ष्म पौधे उगते हैं। ऐसे स्थान मछलियों को बहुत रास आते हैं। उस जलाशय में भी नदी से बहुत-सी मछलियाँ आकर रहती थी। अंडे देने के लिए तो सभी मछलियाँ उस जलाशय में आती थी। वह जलाशय लम्बी घास व झाड़ियों द्वारा घिरा होने के कारण आसानी से नजर नहीं आता था।

उसी में तीन मछलियों का झुंड रहता था। उनके स्वभाव भिन्न थे। अन्ना संकट आने के लक्षण मिलते ही संकट टालने का उपाय करने में विश्वास रखती थी। प्रत्यु कहती थी कि संकट आने पर ही उससे बचने का यत्न करो। यद्दी का सोचना था कि संकट को टालने या उससे बचने की बात बेकार हैं करने कराने से कुछ नहीं होता जो किस्मत में लिखा है, वह होकर रहेगा।

 

एक दिन शाम को मछुआरे नदी में मछलियां पकड़कर घर जा रहे थे। बहुत कम मछलियाँ उनके जालों में फँसी थी। अतः उनके चेहरे उदास थे। तभी उन्हें झाड़ियों के ऊपर मछलीखोर पक्षियों का झुंड जाता दिखाई दिया। सबकी चोंच में मछलियाँ दबी थी। वे चौंके।

पंचतंत्र की कहानियाँ short story

एक ने अनुमान लगाया “दोस्तों! लगता हैं झाड़ियों के पीछे नदी से जुड़ा जलाशय है, जहाँ इतनी सारी मछलियाँ पल रही हैं।” मछुआरे पुलकित होकर झाड़ियों में से होकर जलाशय के तट पर आ निकले और ललचाई नजर से मछलियों को देखने लगे।

एक मछुआरा बोला “अहा! इस जलाशय में तो मछलियाँ भरी पड़ी हैं। आज तक हमें इसका पता ही नहीं लगा।” “यहाँ हमें ढेर सारी मछलियाँ मिलेंगी।” दूसरा बोला। तीसरे ने कहा “आज तो शाम घिरने वाली है। कल सुबह ही आकर यहाँ जाल डालेंगे।” इस प्रकार मछुआरे दूसरे दिन का कार्यक्रम तय करके चले गए। तीनों मछ्लियों ने मछुआरे की बात सुन ली थी।

 

अन्ना मछली ने कहा “साथियों! तुमने मछुआरे की बात सुन ली। अब हमारा यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं हैं। खतरे की सूचना हमें मिल गई है। समय रहते अपनी जान बचाने का उपाय करना चाहिए। मैं तो अभी ही इस जलाशय को छोड़कर नहर के रास्ते नदी में जा रही हूँ। उसके बाद मछुआरे सुबह आएँ, जाल फेंके, मेरी बला से। तब तक मैं तो बहुत दूर अटखेलियाँ कर रही हो-ऊंगी।’

 

प्रत्यु मछली बोली “तुम्हें जाना है तो जाओ, मैं तो नहीं आ रही। अभी खतरा आया कहाँ है, जो इतना घबराने की जरुरत है, हो सकता है संकट आए ही न। उन मछुआरों का यहाँ आने का कार्यक्रम रद्द हो सकता है, हो सकता हैं रात को उनके जाल चूहे कुतर जाएँ, हो सकता है, उनकी बस्ती में आग लग जाए। भूचाल आकर उनके गाँव को नष्ट कर सकता है या रात को मूसलाधार वर्षा आ सकती है और बाढ़ में उनका गाँव बह सकता है। इसलिए उनका आना निश्चित नहीं हैं। जब वह आएँगे, तब की तब सोचेंगे। हो सकता हैं मैं उनके जाल में ही न फँसू।”

 

यद्दी ने अपनी भाग्यवादी बात कही “भागने से कुछ नहीं होने का। मछुआरों को आना है तो वह आएँगे। हमें जाल में फँसना है तो हम फँसेंगे। किस्मत में मरना ही लिखा है तो क्या किया जा सकता है?”

 

इस प्रकार अन्ना तो उसी समय वहाँ से चली गई। प्रत्यु और यद्दी जलाशय में ही रही। भोर हुई तो मछुआरे अपने जाल को लेकर आए और लगे जलाशय में जाल फेंकने और मछलियाँ पकड़ने। प्रत्यु ने संकट को आए देखा तो लगी जान बचाने के उपाय सोचने। उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा। आस-पास छिपने के लिए कोई खोखली जगह भी नहीं थी। तभी उसे याद आया कि उस जलाशय में काफी दिनों से एक मरे हुए ऊदबिलाव की लाश तैरती रही है, वह उसके बचाव के काम आ सकती है।

 

जल्दी ही उसे वह लाश मिल गई। लाश सड़ने लगी थी। प्रत्यु लाश के पेट में घुस गई और सड़ती लाश की सड़ांध अपने ऊपर लपेटकर बाहर निकली। कुछ ही देर में मछुआरे के जाल में प्रत्यु फँस गई। मछुआरे ने अपना जाल खींचा और मछलियों को किनारे पर जाल से उलट दिया। बाकी मछलियाँ तो तड़पने लगीं, परन्तु प्रत्यु दम साधकर मरी हुई मछली की तरह पड़ी रही। मछुआरे को सड़ांध का भभका लगा तो मछलियों को देखने लगा। उसने निश्चल पड़ी प्रत्यु को उठाया और सूंघा “आक! यह तो कई दिनों की मरी मछली है, सड़ चुकी है।” ऐसे बड़बड़ाकर बुरा-सा मुँह बनाकर उस मछुआरे ने प्रत्यु को जलाशय में फेंक दिया।

 

प्रत्यु अपनी बुद्धि का प्रयोग कर संकट से बच निकलने में सफल हो गई थी। पानी में गिरते ही उसने गोता लगाया और सुरक्षित गहराई में पहुँचकर जान की खैर मनाई। यद्दी भी दूसरे मछुआरे के जाल में फँस गई थी और एक टोकरे में डाल दी गई थी। भाग्य के भरोसे बैठी रहने वाली यद्दी ने उसी टोकरी में अन्य मछलियों की तरह तड़प-तड़पकर प्राण त्याग दिए।

 

सीख : भाग्य भी उन्हीं का साथ देता है जो कर्म में विश्वास रखते हैं और कर्म को प्रधान मानते हैं। भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने वाले का विनाश निश्चित है।

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